सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

चंद्रघंटा देवी


पिंडज प्रवरारूढ़ा चंडकोपास्त्रकैर्युता। 
प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघंटेति विश्रुता।।

मां दुर्गा तेसर रूपक नाम चंद्रघंटा अछि। दुर्गा पूजा मे तीसरे दिन हिनके विग्रहक पूजन और आराधना होयत अछि। हिनकर  स्वरूप परम शांतिदायक आओर कल्याणकारी अछि। हिनका माथ पर घंटा के आकारक अर्धचंद्र अछि। अहि द्वारे अहि देवी के नाम चंद्रघंटा पड़लैन। हिनका शरीरक रंग स्वर्ण के समान चमकैत अछि। हिनकर वाहन सिंह अछि। मन, वचन, कर्म एवं शरीर सँ शुद्ध भs के विधि-विधान के अनुसार मां चंद्रघंटा के शरण लके हिनकर उपासना आ आराधना मे तत्पर होवाक  चाहि। हिनकर उपासना सँ समस्त सांसारिक कष्ट सँ मुक्ति भेटैत अछि।

चंद्रघंटा देवी भक्तों के जन्म-जन्मांतर के कष्ट सँ मुक्त कय इहलोक आओर परलोक मे कल्याण प्रदान करैत छथि। हिनका दस हाथ मे कमल, धनुष, बाण, कमंडल, तलवार, त्रिशूल आओर गदा समान अस्त्र छैन। हिनका कंठ में श्वेत पुष्प के माला आओर रत्‍‌न जडि़त मुकुट शीर्ष पर विराजमान छैन। अपन दुनु हाथ सँ ई साधक के चिरायु, आरोग्य आओर सुख-संपदा के  वरदान दैत छथिन। चंद्रघंटा के पूजा-अर्चना देवी के मंडपों मे बड़ उत्साह आओर उमंग सँ  कायल जाईत अछि। हिनकर स्वरूप के उत्पन्न भेला पर राक्षश सब के अंत भेनाई शुरू भ गेल छलैक। मंडप मे सजल घंटा आओर घडि़याल बजाके चंद्रघंटा की पूजा उस समय की जाती है, जब आकाश में एक लकीरनुमा चंदमा सायंकाल के समय उदित हो रहा हो। चंद्रघंटा के पूजा-अर्चना केला सँ सिर्फ बल आओर बुद्धिये टा के विकास होयत अछि, बल्कि युक्ति, शक्ति आओर प्रकृति सेहो साधक के संग दैत अछि।

शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

ब्रह्मचारिणी



  
ध्यान मंत्र
दधानां कर पद्माभ्यामक्षमाला कमण्डलम् ।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्त मा॥

आजुक दिन (द्वितीया) तिथि, ६ अक्टूबर २०१३, दिन रविवार माता ब्रह्मचारिणी के पूजा होयत अछि । माता ब्रह्मचारिणी भगवान शंकर के पति रूप मे प्राप्त करवाक लेल घोर तपस्या केने छलैथ ।  घोर तपस्या के कारण देवी के तपश्चारिणी यानी ब्रह्मचारिणी नाम सँ पुकारल जायत अछि । मां दुर्गा की नवशक्ति के दोसर रूप ब्रह्मचारिणी के छैन। ई ब्रह्म का अर्थ तपस्या सँ  अछि। मां दुर्गाक ई रूप भक्त आओर सिद्ध प्राप्त करय वाला के अनंत फल भेटैत अछि। हिनकर उपासना सँ तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार आओर संयम के वृद्धि होयत अछि। ब्रह्मचारिणीक अर्थ तप के चारिणी यानी तप के आचरण करय वाली। देवी के इ रूप पूर्ण ज्योतिर्मय आओर अत्यंत भव्य अछि। अहि देवी के दहिना हाथ मे जप के माला आओर बामा हाथ मे कमण्डल धारण केने छैथ। पूर्व जन्म मे माता ब्रह्मचारिणी हिमालय के घर बेटी रूप में जन्म लेने छलैथ आओर नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर के पतिक रूप मे प्राप्त करवाक लेल घोर तपस्या केने छलैथ। हजार वर्ष तक केवल फल-फूल खा के  आओर सौ वर्ष केवल जमीन पर पत्ता पर जीवन निर्वाह केलैथ। आगुओ कतेक हजार वर्ष तक निर्जल और निराहार रहि के  तपस्या करैत रहलि। कठिन तपस्या के कारण देवीक शरीर एकदम क्षीण भs गेलैन। देवता, ऋषि-मुनि सब ब्रह्मचारिणीक  तपस्या के अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बतेलैथ आओर सराहना केलैथ। माता ब्रह्मचारिणी देवीक कृपा सँ  सब  तरहक  मनोकामना पुरा होयत अछि। दुर्गा पूजा के दोसर दिन देवी के अहि स्वरूप के उपासना कायल जायत अछि। अहि देवीक कथाक सार ई अछि जे जीवनक कठिन संघर्षों मे मन विचलित नहि  करवाक चाही ।

ध्यान

वन्दे वांच छि लाभायचन्द्रर्घकृतशेखराम्।
जपमालाकमण्डलुधराब्रह्मचारिणी शुभाम्घ्
गौरवर्णास्वाधिष्ठानास्थितांद्वितीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
धवल परिधानांब्रह्मरूपांपुष्पालंकारभूषिताम्घ्
पद्मवंदनापल्लवाराधराकातंकपोलांपीन पयोधराम्।
कमनीयांलावण्यांस्मेरमुखीनिम्न नाभि नितम्बनीम्घ्


स्तोत्र

तपश्चारिणीत्वंहितापत्रयनिवारिणीम्।
ब्रह्मरूपधराब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्घ्
नवचक्त्रभेदनी त्वंहिनवऐश्वर्यप्रदायनीम्।
धनदासुखदा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्घ्
शंकरप्रियात्वंहिभुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदामानदा,ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्। कवच
त्रिपुरा में हृदयेपातुललाटेपातुशंकरभामिनी।
अर्पणासदापातुनेत्रोअर्धरोचकपोलोघ्
पंचदशीकण्ठेपातुमध्यदेशेपातुमहेश्वरीघ्
षोडशीसदापातुनाभोगृहोचपादयो।

शैलपुत्रीक पूजाक विधान (कलश स्थापना)




दुर्गा-पूजाक पहिल दिन मां शैलपुत्रीक पूजाक विधान अछि । दुर्गा-पूजा प्रारम्भ आश्रि्वन शुक्ल पक्ष के प्रतिपदा तिथि के  कलश स्थापना के संग होयत अछि ।  कलश के हिन्दु विधान में मंगलमूर्ति गणेशक स्वरूप मानल जायत अछि, अत: सबसे पहिने कलशक स्थापना कायल जायत अछि ।

कलश स्थापना के लेल भूमि के सिक्त यानी शुद्ध कायल जायत अछि । गाय गोबर और गंगा-जल सँ भूमि को निपल जायत अछि । विधि- विधान के अनुसार अहि स्थान पर अक्षत राखल जायत अछि और सिनुर पिठार कलश में लगायल जायत अछि । ओकरा बाद कलश स्थापित कायल जायत अछि ।

नवरात्रि के पहले दिन मां शैलपुत्रीक पूजा कायल जायत अछि । मार्कण्डेय पुराण के अनुसार देवीक ई नाम हिमालय में  जन्म भेलाक कारण परल छैन । हिमालय हमर शक्ति, दृढ़ता, आधार व स्थिरताक प्रतीक अछि ।

मां शैलपुत्री के अखंड सौभाग्य के प्रतीक सेहो मानल   जायत छैन । नवरात्रि के पहिल दिन योगीजन अपनी शक्ति मूलाधार में स्थित करैत छथि आ योग साधना करैत छथि।

ध्यान मंत्र

वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रा‌र्द्वकृतशेखराम्।
वृषारूढ़ा शूलधरां यशस्विनीम्॥

अर्थात- देवी वृषभ पर विराजित छथि । शैलपुत्री के दाहिना हाथ में त्रिशूल छैन आ बामा हाथ में कमल पुष्प सुशोभित छैन । ईहाँ नवदुर्गा में प्रथम दुर्गा छैथ । नवरात्रि के पहिल दिन देवी उपासना में शैलपुत्रीक पूजन करवाक चाहि।

महत्व
हमरा जीवन प्रबंधन में दृढ़ता, स्थिरता आ आधारक महत्व सर्वप्रथम अछि । अत: नवरात्रि के पहले दिन हमरा सबके अपन स्थायित्व आ शक्तिमान हेवाक लेल माता शैलपुत्री से प्रार्थना करवाक चाहि। शैलपुत्री का आराधना केला सँ जीवन में स्थिरता आबैत अछि । हिमालयक बेटी हेवाक कारण ई देवी प्रकृति स्वरूपा सेहो छैथ । स्त्रिगन के लेल हिनके पूजा श्रेष्ठ और मंगलकारी अछि ।

बुधवार, 26 जून 2013

बृहस्पतिवार व्रतकथा


प्राचीन समय की बात है. किसी राज्य में एक बड़ा प्रतापी तथा दानी राजा राज्य करता था | वह प्रत्येक गुरूवार को व्रत रखता एवं भूखे और गरीबों को दान देकर पुण्य प्राप्त करता था परन्तु यह बात उसकी रानी को अच्छा नहीं लगता था | वह न तो व्रत करती थी और न ही किसी को एक भी पैसा दान में देती थी और राजा को भी ऐसा करने से मना करती थी |
एक समय की बात है, राजा शिकार खेलने को वन को चले गए थे. घर पर रानी और दासी थी | उसी समय गुरु वृहस्पतिदेव साधु का रूप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा मांगने को आए | साधु ने जब रानी से भिक्षा मांगी तो वह कहने लगी, हे साधु महाराज, मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूं. आप कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे कि सारा धन नष्ट हो जाए और मैं आराम से रह सकूं |
वृहस्पतिदेव ने कहा, हे देवी, तुम बड़ी विचित्र हो, संतान और धन से कोई दुखी होता है | अगर अधिक धन है तो इसे शुभ कार्यों में लगाओ, कुवांरी कन्याओं का विवाह कराओ, विद्यालय और बाग़-बगीचे का निर्माण कराओ, जिससे तुम्हारे दोनों लोक सुधरें, परन्तु साधु की इन बातों से रानी को ख़ुशी नहीं हुई. उसने कहा- मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं है, जिसे मैं दान दूं और जिसे संभालने में मेरा सारा समय नष्ट हो जाए |
तब साधु ने कहा- यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो मैं जैसा तुम्हें बताता हूं तुम वैसा ही करना | वृहस्पतिवार के दिन तुम घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिटटी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से हजामत बनाने को कहना, भोजन में मांस मदिरा खाना, कपड़ा धोबी के यहां धुलने डालना | इस प्रकार सात वृहस्पतिवार करने से तुम्हारा समस्त धन नष्ट हो जाएगा. इतना कहकर साधु रुपी वृहस्पतिदेव अंतर्ध्यान हो गए |
साधु के कहे अनुसार करते हुए रानी को केवल तीन वृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई | भोजन के लिए राजा का परिवार तरसने लगा. तब एक दिन राजा रानी से बोला- हे रानी, तुम यहीं रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूं, क्योंकि यहां पर सभी लोग मुझे जानते हैं | इसलिए मैं कोई छोटा कार्य नहीं कर सकता | ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया. वहां वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता | इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा | इधर, राजा के परदेश जाते ही रानी और दासी दुखी रहने लगी |
एक बार जब रानी और दासी को सात दिन तक बिना भोजन के रहना पड़ा, तो रानी ने अपनी दासी से कहा- हे दासी, पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है | वह बड़ी धनवान है | तू उसके पास जा और कुछ ले आ ताकि थोड़ा-बहुत गुजर-बसर हो जाए| दासी रानी के बहन के पास गई | उस दिन वृहस्पतिवार था और रानी की बहन उस समय वृहस्पतिवार व्रत की कथा सुन रही थी | दासी ने रानी की बहन को अपनी रानी का सन्देश दिया, लेकिन रानी की बड़ी बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया | जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुखी हुई और उसे क्रोध भी आया | दासी ने वापस आकर रानी को सारी बात बता दी | सुनकर रानी ने अपने भाग्य को कोसा. उधर, रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परन्तु मैं उससे नहीं बोली, इससे वह बहुत दुखी हुई होगी. कथा सुनकर और पूजन समाप्त कर वह अपनी बहन के घर आई और कहने लगी- हे बहन, मैं वृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी | तुम्हारी दासी मेरे घर आई थी परन्तु जब तक कथा होती है, तब तक न तो उठते हैं और न ही बोलते हैं, इसलिए मैं नहीं बोली. कहो दासी क्यों गई थी |
रानी बोली- बहन, तुमसे क्या छिपाऊं, हमारे घर में खाने तक को अनाज नहीं था | ऐसा कहते-कहते रानी की आंखे भर आई | उसने दासी समेत पिछले सात दिनों से भूखे रहने तक की बात अपनी बहन को विस्तारपूर्वक सूना दी | रानी की बहन बोली- देखो बहन, भगवान वृहस्पतिदेव सबकी मनोकामना को पूर्ण करते हैं. देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो. पहले तो रानी को विश्वास नहीं हुआ पर बहन के आग्रह करने पर उसने अपनी दासी को अन्दर भेजा तो उसे सचमुच अनाज से भरा एक घड़ा मिल गया | यह देखकर दासी को बड़ी हैरानी हुई. दासी रानी से कहने लगी- हे रानी, जब हमको भोजन नहीं मिलता तो हम व्रत ही तो करते हैं, इसलिए क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाए, ताकि हम भी व्रत कर सके. तब रानी ने अपनी बहन से वृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा. उसकी बहन ने बताया, वृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें तथा दीपक जलाएं, व्रत कथा सुनें और पीला भोजन ही करें | इससे वृहस्पतिदेव प्रसन्न होते हैं | व्रत और पूजन विधि बतलाकर रानी की बहन अपने घर को लौट गई |
सातवें रोज बाद जब गुरूवार आया तो रानी और दासी ने निश्चयनुसार व्रत रखा | घुड़साल में जाकर चना और गुड़ बीन लाई और फिर उसकी दाल से केले की जड़ तथा विष्णु भगवान का पूजन किया | अब पीला भोजन कहां से आए इस बात को लेकर दोनों बहुत दुखी थे. चूंकि उन्होंने व्रत रखा था इसलिए गुरुदेव उनपर प्रसन्न थे | इसलिए वे एक साधारण व्यक्ति का रूप धारण कर दो थालों में सुन्दर पीला भोजन दासी को दे गए | भोजन पाकर दासी प्रसन्न हुई और फिर रानी के साथ मिलकर भोजन ग्रहण किया |
उसके बाद वे सभी गुरूवार को व्रत और पूजन करने लगी | वृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास फिर से धन-संपत्ति हो गया, परन्तु रानी फिर से पहले की तरह आलस्य करने लगी | तब दासी बोली- देखो रानी, तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थी, तुम्हें धन रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गया और अब जब भगवान गुरुदेव की कृपा से धन मिला है तो तुम्हें फिर से आलस्य होता है | बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है, इसलिए हमें दान-पुण्य करना चाहिए, भूखे मनुष्यों को भोजन कराना चाहिए, और धन को शुभ कार्यों में खर्च करना चाहिए, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़ेगा, स्वर्ग की प्राप्ति हो और पित्तर प्रसन्न हो. दासी की बात मानकर रानी अपना धन शुभ कार्यों में खर्च करने लगी, जिससे पूरे नगर में उसका यश फैलने लगा |


                 आरती:

ॐ जय ब्रह्स्पति देवा, जय ब्रह्स्पति देवा |
छिन छिन भोग लगाऊ फल मेवा ||

तुम पूरण परमात्मा, तुम अंतर्यामी |
जगत पिता जगदीश्वर तुम सबके स्वामी || ॐ

चरणामृत निज निर्मल, सब पातक हर्ता |
सकल मनोरथ दायक, किरपा करो भर्ता || ॐ

तन, मन, धन अर्पणकर जो शरण पड़े |
प्रभु प्रकट तब होकर, आकर द्वार खड़े || ॐ

दीन दयाल दयानिधि, भक्तन हितकारी |
पाप दोष सभ हर्ता,भाव बंधन हारी || ॐ

सकल मनोरथ दायक,सब संशय तारो |
विषय विकार मिटाओ संतन सुखकारी || ॐ

जो कोई आरती तेरी, प्रेम सहित गावे |
जेष्टानंद बन्द सो सो निश्चय पावे || ॐ

सोमवार, 9 जुलाई 2012

क्यों रखना चाहिए सावन सोमवार के व्रत?


हिन्दू धर्म में सोमवार के दिन व्रत रखने का महत्व बताया गया है। यह शिव उपासना से कामनासिद्धि के लिए प्रसिद्ध है। खासतौर पर शिव भक्ति के विशेष काल सावन माह के सोमवार साल भर के सोमवार व्रतों का पुण्य देने वाले माने गए हैं।  किंतु सोमवार व्रत रखने की एक ओर खास वजह भी है, जानिए -

ज्योतिष विज्ञान के मुताबिक यह दिन कुण्डली में चंद्र ग्रह के बुरे योग से जीवन में आ रही बाधाओं को दूर करने के लिए भी अहम है। दरअसल, चंद्र मानव जीवन और प्रकृति पर असर डालता है और चंद्र के बुरे प्रभाव को कम करने के लिए ही सोमवार को चंद्र पूजा और व्रत का महत्व बताया गया है। डालिए चंद्रमा के होने वाले प्रभावों पर एक नजर -

विज्ञान के मुताबिक पृथ्वी समेत अन्य सभी ग्रह सूर्य के चक्कर लगाते हैं। वहीं चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है, क्योंकि वह ग्रह न होकर एक उपग्रह है। व्यावहारिक जीवन में भी हम देखते हैं कि चन्द्रमा मानव जीवन के साथ-साथ साथ-साथ पूरे जगत पर ही प्रभाव डालता है।  इसका प्रमाण है पूर्णिमा की रात जब चन्द्रमा पूर्ण आकार में दिखाई देता है, तब समुद्र में आता है ज्वार। वहीं जब अमावस्या के आस-पास चन्द्रमा अदृश्य होता है, तब समुद्र पूरी तरह शांत रहता है। इस प्रकार आकाश में चन्द्रमा के आकार घटने-बढऩे के साथ-साथ पानी और अन्य तरल पदार्थों में हलचल भी कम-ज्यादा होने लगती है।

ज्योतिष विज्ञान कहता है कि चन्द्रमा हमारी पृथ्वी के सबसे नजदीक है और अपनी निकटता के कारण ही हमारे जीवन के हर कार्य व्यवहार पर सबसे अधिक असर डालता है। यही वजह है कि जिन लोगों में जल तत्व की प्रधानता होती है, वे पूर्णिमा के आस-पास अधिक आक्रामक, क्रोधित और उद्दण्ड बने रहते हैं। जबकि अमावस्या के आस-पास एकदम शांत और गंभीर देखे जाते हैं।

खासतौर पर जलतत्व राशि जैसे मीन, कर्क, वृश्चिक वाले स्त्री-पुरुषों को सोमवार का व्रत और चन्द्रदेव का पूजन तो जरूर करना ही चाहिए। मानसिक शांति, मन की चंचलता को रोकने और दिमाग को संतुलित रखने के लिए तो चन्द्रदेव के निमित्त किए जाने वाला सोमवार का व्रत ही श्रेष्ठ उपाय है। चंद्रदोष शांत के लिए स्फटिक की माला पहनना तथा मोती का धारण करना शुभ होता है।

धार्मिक दृष्टि से चूंकि शास्त्रों में भगवान शिव चन्द्रमौलेश्वर यानी दूज के चांद को मस्तक पर धारण करने वाले बताए गए हैं। शिव कृपा से ही चंद्रदेव ने फिर से सौंदर्य को पाया। इसलिए सोमवार को व्रत रख शिव पूजा से चंद्र पूजा होने के साथ चंद्र दोष और रोग भी दूर हो जाते हैं। 



निराली है शिव की महिमा

मान्यता है कि भगवान शिव संसार के समस्त मंगल का मूल हैं। यजुर्वेद में उनकी स्तुति इस प्रकार की गई है- नम: शंभवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नम: शिवाय च शिवतराय च॥ इस वैदिक ऋचा में परमात्मा को 'शिव', 'शंभु' और 'शंकर' नाम से नमन किया गया है। 'शिव' शब्द बहुत छोटा है, पर इसके अर्थ इसे गंभीर बना देते है। 'शिव' का व्यावहारिक अर्थ है 'कल्याणकारी'। 'शंभु' का भावार्थ है 'मंगलदायक'। 'शंकर' का तात्पर्य है 'आनंद का श्चोत'। यद्यपि ये तीनों नाम भले ही भिन्न हों, लेकिन तीनों का संकेत कल्याणकारी, मंगलदायक, आनंदघन परमात्मा की ओर ही है। वे देवाधिदेव महादेव, सबके अधिपति महेश्वर सदाशिव ही है। परंतु यह ध्यान रहे कि भगवान 'शिव' त्रिदेवों के अंतर्गत रुद्र [रौद्र रूप वाले] नहीं हैं।
भगवान शिव की इच्छा से प्रकट रजोगुण रूप धारण करने वाले ब्रहृमा, सलवगुणरूप विष्णु एवं तमोगुण रूप रुद्र है, जो क्रमश: सृजन, रक्षण [पालन] तथा संहार का कार्य करते है। ये तीनों वस्तुत: सदाशिव की ही अभिव्यक्ति है, इसलिए ये शिव से पृथक भी नहीं हैं। ब्रहृमा-विष्णु-महेश तात्विक दृष्टि से एक ही है। इनमें भेद-करना अनुचित है।
दार्शनिक मान्यता है कि ब्रहृमांड पंचतत्वों से बना है। ये पांच तत्व है- जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु और आकाश। भगवान शिव पंचानन अर्थात पांच मुख वाले है। शिवपुराण में इनके इसी पंचानन स्वरूप का ध्यान बताया गया है। ये पांच मुख- ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात नाम से जाने जाते है। भगवान शिव के ऊ‌र्ध्वमुख का नाम 'ईशान' है, जिसका दुग्ध जैसा वर्ण है। 'ईशान' आकाश तत्व के अधिपति है। ईशान का अर्थ है सबके स्वामी। ईशान पंचमूर्ति महादेव की क्रीड़ामूर्ति हैं। पूर्वमुख का नाम 'तत्पुरुष' है, जिसका वर्ण पीत [पीला] है। तत्पुरुष वायु तत्व के अधिपति है। तत्पुरुष तपोमूर्ति हैं। भगवान सदाशिव के दक्षिणी मुख को 'अघोर' कहा जाता है। यह नीलवर्ण [नीले रंग का] है। अघोर अग्नितत्व के अधिपति है। अघोर शिवजी की संहारकारी शक्ति हैं, जो भक्तों के संकटों को दूर करती है। उत्तरी मुख का नाम वामदेव है, जो कृष्णवर्ण का है। वामदेव जल तत्व के अधिपति है। वामदेव विकारों का नाश करने वाले है, अतएव इनके आश्रय में जाने पर पंचविकार काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह नष्ट हो जाते है। भगवान शंकर के पश्चिमी मुख को 'सद्योजात' कहा जाता है, जो श्वेतवर्ण का है। सद्योजात पृथ्वी तत्व के अधिपति है और बालक के समान परम स्वच्छ, शुद्ध और निर्विकार है। सद्योजात ज्ञानमूर्ति बनकर अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट करके विशुद्ध ज्ञान को प्रकाशित कर देते है। पंचभूतों [पंचतत्वों] के अधिपति होने के कारण ये 'भूतनाथ' कहलाते है।
शिव-जगत में पांच का और भी महत्व है। रुद्राक्ष सामान्यत: पांच मुख वाला ही होता है। शिव-परिवार में भी पांच सदस्य है- शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय और नंदी। शिवजी की उपासना पंचाक्षर मंत्र- 'नम: शिवाय' द्वारा की जाती है। शिव काल (समय) के प्रवर्तक और नियंत्रक होने के कारण 'महाकाल' भी कहलाते है। काल की गणना 'पंचांग' द्वारा होती है। काल के पांच अंग- तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण शिव के ही अवयव है।
शिव जी करुणासिंधु, भक्तवत्सल होने के कारण भक्त की भावना के वशीभूत होकर उसकी मनोकामना पूर्ण कर देते है, पर यह स्मरण रहे कि 'देवो भूत्वा यजेत् देवं।' अर्थात अपने इष्टदेव की अर्चना करने के लिए पहले अपने आपको उनके अनुरूप बनाओ। इसलिए 'शिवो भूत्वा शिवं यजेत्' को अपने आचरण में ढाल लें। शिवार्चन तभी सफल होगा, जब भक्त शिव के समान ही त्यागी, परोपकारी, संयमी, साधनाशील और सहिष्णु होगा। श्रुतियों में कहा गया है कि शिव ही समस्त प्राणियों के अंतिम विश्राम के स्थान है। वेदों, पुराणों और उपनिषदों में शिव को ही सच्चिदानंद घन परब्रहृम कहा गया है। यही कारण है कि निर्गुण निराकार शिवलिंग-रूप तथा सगुण-साकार मूर्तिरूप, दोनों तरह से शिव जी का पूजन होता है।

'वृष' का शाब्दिक अर्थ धर्म (जिसे हम धारण करते हैं अर्थात हमारे कर्तव्य) भी है। भगवान शंकर धर्म अर्थात कर्तव्यों के भी अधिपति है।? शिवजी की आराधना में कर्मकांड की जटिलता नहीं, वरन भावना की प्रधानता है। वे अतिशीघ्र प्रसन्न हो जाते है। इसी कारण वे 'आशुतोष' कहलाते है। जिस प्रकार हलाहल (विष) को पीकर उन्होंने देवताओं को संकट से बचाया और 'नीलकंठ' बन गए, उसी तरह उनके भक्तों को भी उनका अनुसरण करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।
शिव-तत्व को जीवन में उतार लेना ही शिवत्व प्राप्त करना है और यही शिव होना है। हमारा लक्ष्य भी यही होना चाहिए। तभी शिवार्चन सफल होगा और सावन का पूरा लाभ मिलेगा।

क्या है शिव के गले के नाग का रहस्य?


भगवान शिव के विराट स्वरूप की महिमा बताते शिव पञ्चाक्षरी स्तोत्र की शुरुआत में शिव को 'नागेन्द्रहाराय' कहकर स्तुति की गई है, जिसका सरल शब्दों में अर्थ है, ऐसे देवता जिनके गले में सर्प का हार है। यह शब्द शिव के दिव्य और विलक्षण चरित्र को उजागर ही नहीं करता बल्कि जीवन से जुड़ा एक सूत्र भी सिखाता है।

शास्त्रों के मुताबिक शिव नागों के अधिपति है। दरअसल, नाग या सर्प कालरूप माना गया है। क्योंकि वह जहरीला व तामसी स्वभाव का जीव है। नागों का शिव के अधीन होना यही संकेत है कि शिव तमोगुण, दोष व विकारों के नियंत्रक व संहारक हैं, जो कलह का कारण ही नहीं बल्कि जीवन के लिए घातक भी होते हैं। इसलिए वह प्रतीक रूप में कालों के काल भी पुकारे जाते हैं और शिव भक्ति ऐसे ही दोषों को दूर करती है। इन बातों में जीवन से जुड़ा एक सबक है।

शिव का नागों का हार पहनना व्यावहारिक जीवन के लिए भी यही संदेश देता है कि अगर ज़िंदगी को तबाह करने वाले कलह और कड़वाहट रूपी घातक जहर से बचाना है तो मन, वचन व कर्म से द्वेष, क्रोध, काम, लोभ, मोह, मद जैसे विकारों व बुरी आदत रूपी नागों पर काबू रखें। सरल शब्दों में कहें तो साफ छवि और संयम भरी जीवनशैली से जीवन को शिव की तरह निर्भय, निश्चिंत व सुखी बनाएं।

source:dainikbhaskar